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फ़रवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दिल और दिमाग की एक 'लय' है, तो सफलता 'तय' है

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मेरा दिल करता है कि मैं यह काम करूं लेकिन मेरा दिमाग डिसिजन नहीं ले पा रहा ,  मैंने तो यह करने की ठान ली है लेकिन डर लग रहा है , अरे यार उस समय मैंने यह कर लिया होता तो आज मैं कहीं ओर होता… आपने अक्‍सर लोगों को यह कहते सुना होगा या फिर खुद भी अनुभव किया होगा । ऐसा क्‍यों होता है कि अक्‍सर हमारा दिल कुछ करना चाहता है लेकिन हम वह काम कर नहीं पाते। ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि हमारे दिल और दिमाग की फ्रिक्‍वेंसी अलग-अलग है । अक्‍सर हमारे दिल की आवाज हमारे दिमाग की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती इसलिए हम कई काम नहीं कर पाते। जीवन में हमारी सफलता दिल व दिमाग के सामंजस्‍य पर निर्भर होती है , तो बस अपने दिल और दिमाग को एक लय पर ले आइये फिर जीत आपकी ही होगी । आपने एक गाना सुना होगा ' दिल तो बच्‍चा है जी '   यह बोल काफी हद तक वास्‍वकिता के करीब हैं , हमारे दिल की चाहत बिलकुल बच्‍चों की तरह होती हैं , जैसे बच्‍चों को नए-नए खिलौने चाहिए , उसी तरह हमें भी जीवन में नई-नई चीजें चाहिए लेकिन हमारा दिमाग व्‍यवहारिकता , संसाधन , भविष्‍य और अन्‍य आयामों पर चीजों को परखता है । कई बार हम सिर्फ दिल की

खुश रहना है तो दुनिया को नहीं ''खुद को बदलें''

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  हम सभी जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं ,  कुछ हासिल करना चाहते हैं , कुछ नया करना चाहते हैं , इन सपनों को साकार करने के लिए हम प्रयास करते हैं कि परिवार के लोग उनके सोचने के तरीके को बदल दें , समाज के लोग नजरिए को बदल दें और ऐसा होने पर हम दुनिया को बदल देंगे लेकिन ऐसा करने में हम सफल नहीं हो पाते । क्‍योंकि किसी ओर चीज को बदलना न तो हमारे अधिकार में है न ही उसे बदलकर हम अपने लक्ष्‍य तक पहुंच सकते हैं । अगर जीवन में खुश रहना हैं तो दुनिया को नहीं खुद को बदलें , दुनिया अपने आप ही हसीन लगने लगेगी । सोचिए कि आपको किसी पर्वत पर चढ़ना है तो आप पर्वत के आकार को बदलने का प्रयास करेंगे या पर्वत पर चढ़ने की तैयारी में जुटेंगे । हम पर्वत को अपने योग्‍य नहीं बना सकते लेकिन खुद को पर्वत के योग्‍य बना सकते हैं , ऐसा ही हमारे जीवन के साथ भी होता है । हम दुनिया को अपने अनुसार बदल नहीं सकते लेकिन दुनिया तक अपनी विचारधारा पहुंचा सकते हैं । खुद को बदलने से मेरा अर्थ विचारों को रचनात्‍मक करने से है । फूलों को देखिए उनका काम है खूशबू देना , वह कभी नहीं सोचते कि काटों को पेड़ों से हटा दूं , पत्तियों क

समर्पण और परवाह के धागे से बंधे हैं "प्रेम के सूत्र"

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प्रेम क्या है .......... इसे सब अपने नजरिए से समझते हैं, कोई आकर्षण में खोकर उसे प्रेम मान लेता है तो कोई अपनी चाहत को पाने की इच्छा को प्रेम साबित करने में लगा रहता है। कोई कह सकता है कि जिसे वह चाहता है उसे पा लेना ही प्रेम है तो कोई अपने प्यार को ना पाने की स्थिति में उससे संबंध खत्म कर देने या खुद को दुनिया से दूर कर लेने वाले भाव को महान प्रेम बताता है लेकिन वास्तविकता में यह प्रेम नहीं है। प्रेम न तो किसी रंग-बिरंगे कागज में लिपटा उपहार है न ही किसी गुलदस्ते में महकता फूल। प्रेम के सूत्र तो समर्पण और परवाह के धागे में बंधे होते हैं। जो इस धागे में बंध गया समझो प्रेम का ढाई आखर समझ गया। प्रेम को गहराई से समझने के लिए हमें देखना होगा कि क्या हम जिसे चाहते हैं बस उसे पा लेने तक ही हमारा प्रेम सिमित है, अगर ऐसा है तो यह प्रेम नहीं 'मोह' है और यकीन मानिए अपनी चाहत को पाने के कुछ समय बाद ही यह 'मोह' खत्म हो जाएगा। प्रेम तो वह है जो अपने प्यार की खुशियों को चाहे, फिर भले ही वह उसके साथ हों या उससे दूर। कई बार एक-दूसरे से अलग होना भी प्रेम है तो कई बार दोंनों का एक हो जान

केवल कर्म ही आपका अधिकार है, फल तो केवल विचार है

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  श्रीमद् भगवद्  गीता का सबसे चर्चित व प्रचलित श्‍लोक है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन … अर्थात् कर्म करते चलो , फल की चिंता मत करो । हम इसे याद भी रखते हैं और जीवन का जोड़- घटाना भी इससे तय करने की कोशिश करते हैं लेकिन इसकी गहराई में नहीं जाते । हम अपने कर्म को सही साबित करने के लिए विवाद भी करते हैं , फल की आशा भी करते हैं और आशानुरूप परिणाम नहीं मिलने पर परिस्थितियों को कोसते भी हैं… जबकि यह सब  निरर्थक  है । वास्‍तव में मा फलेषु कदाचन का मतलब है कि कर्म के दौरान या उसके बाद फल का विचार भी नहीं करना चाहिए , जो हमारा अधिकार है वह सिर्फ कर्म है और वह हम कर चुके हैं । अगर गहराई में जाकर देखें तो इसका वास्‍तविक अर्थ है कि कर्म ही आपके अनुसार तय हो सकता है , जिसे आप शरीर , शब्‍द या विचार से क्रियान्वित कर सकते हैं । यहां हमें जानना जरूरी है कि फल की चिंता नहीं करने का आशय क्‍या है , इसका अर्थ है कर्मफल के बंधन से मुक्‍त हो जाना , जबकि हम फल की चिंता नहीं करने का मतलब समझते हैं कि जिनके सामने या जिनके लिए कर्म किया है उनसे फल की अपेक्षा नहीं रखना। इसके बदले हम लगातार भगवान क